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लैंगिक अधिपत्य और न्याय

यू तो न्यायालय न्याय हमारे संविधान का सहारा लेकर न्याय करती है परंतु जिस प्रकार ज़ुल्म करने वालों की मानसिक स्थिति आक्रामक और व्यक्तिगत तुष्टिकरण से अधिक युक्त हुई है। 


उससे तो वर्तमान में अब हमारा पुराना संविधान कुछ नरम सा नज़र आता है । स्वागत है आपका uveeright पर जहां आज हम पुरुषों पर हुए प्रताड़ना के बारे में चर्चा करने वाले है जो नया नहीं है बस गंभीर चर्चा अब हुई है।
हमारे देश में महिलाओं को मानवता रक्षक के तौर पर संविधान में सबसे ज़्यादा नर्म और अधिक सुविधाएं प्रदान की है परंतु वर्तमान में यही सुविधाएं कही न कही ज़ुल्म को बढ़ावा दे रही है।  कुछ ऐसे ही मामले वर्तमान में सोशल मीडिया के माध्यम से जनता तक सामने आ रहे है। जिसमें ताज़ा मामला अतुल सुभाष के रूप में सामने आ रहा है। जिसमें पत्नी द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर आत्महत्या का मामला सामने आया । यह घटना किसी भी सहनशील पुरुष प्रधान व्यक्ति की मानसिक और भावात्मक तौर पर सहन सकती को साफ साफ बया करने के लिए काफी है।परंतु  यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी पुरुष के साथ ऐसा पहली बार ऐसा हुआ है। इससे पहले भी ऐसे कई मामले हुए है जो सामने तो आए परन्तु समय रहते दबा दिए गए।  जिसमें  कार्य स्थल, परिवार, समाज में भी कई ऐसी घटनाएं होती है जिसमें पुरुष होने के नाते और महिलाओं का संविधान का दुरूपयोग के कारण दबा दिए जाते है। 
 आज महिलाओं का शस्त्र कहा जाने वाला संविधान जिसका महिलाएं स्वयं ही दुरुपयोग कर अन्याय को बढ़ावा दे रही है । जिससे कही न कही अब बदलाव की आवश्यकता को साफतौर से महसूस किया जा सकता है। ताकि इस तरह की सहनशीलता को और कष्ट न पहुंचे। जहां संविधान में महिलाओं को ज़्यादा लाभ दिया दिया है जिसके तहत कई कमज़ोर महिलाओं को लाभ भी  पहुंचा है। महिलाओं के शोषण में भी कमी आई है, आज महिलाएं किसी भी शोषण के खिलाफ न्यायालय जा सकती है और अपनी शिकायत भी दर्ज कर सकती है। परंतु कुछ महिलाएं इस व्यवस्था को साधने की कोशिश करती है। जहां आज भी कुछ महिलाएं यूंही ज़ुल्म को सह रही है न्यायालय तो दूर की बात पुलिस स्टेशन तक नहीं जाती यूंही ज़ुल्म सह कर पूरा जीवन काट देती है । वहीं कुछ महिलाएं अपनी शिक्षा और उच्च स्तर का फायदा  उठा कर ज़ुल्म और प्रताड़ना को बढ़ावा देने में  कामयाब है । जिसका मेन कारण न्याय का वही पुराने समीकरण का उपयोग किया जाना भी है। 
इन सबमें आज भी कमजोर महिलाएं न्याय को तरस रही है। आज भी प्रताड़ित पुरुष शांत है । फायदा केवल साधने वाले को की है। आज यह कहना गलत नहीं है कि जिन्हें सक्षम बनाना था आज वही महिलाएं शोषण पर उतर आई है। आज सहनशील पुरुष दयनीय स्थिति में है, और राक्षस प्रवृत्ति वैसे ही फलफूल रहे है। फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला 

दोषी सिर्फ दोषी     आज जिस प्रकार मानवता अपनी सौम्यता खोती जा रही है ज़ुल्म करने वाला अपने सबसे क्रूर भाव का उपयोग कर रहे है वह अब न्याय में  भी लैंगिक सामान्यता के दृष्टिकोण को अपना लेना चाहिए जहां दोषी को अपने कर्म के अनुसार सजा देनी चाहिए न कि महिला और पुरूष के आधार पर। 
वरना हम आज उस दहलीज के बेहद करीब है जहां पुरूष तख्ती लिए " वी वांट जस्टिस " करते नजर आ जाएंगे। ये सब  अभी तो कुछ नहीं है यदि परिवर्तन न किए गए तो समस्या और भी गंभीर हो सकती है। 


 

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